डॉ. अतुल कुमार
अंर्तराष्ट्रीय आयात दरें उत्पाद, उत्पादक राष्ट्र और व्यापारिक समझौतों के आधार पर तय होती हैं। आयातक धनी राष्ट्र इस तरह के सौदों पर अनुबंध में हावी होता है। अमेरिका आयात और निर्यात में विश्व का सबसे बड़ा राष्ट्र है परन्तु केवल निर्यात में नहीं। अमेरिका का आयात बिल निर्यात से अधिक है। ऐसा लगता है कि ट्रंप सरकार ने आयात नीति में बदलाव के दूरगामी परिणामों की समीक्षा नहीं की। सूक्ष्मता से देखें तो व्यवसायिक नीतियों में भारी परिवर्तन की आड़ में ट्रम्प ने स्वयं और अपने अमेरिकन चहेतों उद्योगपतियों के लाभ के लिए आयात करों की नयी दरों में अनापेक्षित परिवर्तन किया। दूसरी ओर ट्रम्प दरों के साथ यूरोप और अमेरिका के प्रतिबंध नीति में व्यवसायिक व्यापार में क्षेत्रफल और जनसंख्या दोनों ही आधार में आधे विश्व से नाता तोड़ लिया है। अमेरिका और यूरोपियन संघ के साझे में कम से कम बाईस राष्ट्रों को किसी ना किसी तरह के प्रतिबंधों की सूची में डाल रखा है। इनमें अफगानिस्तान, मध्य अफ्रिका, बेलारूस, बोस्निया, बुरुंडी, गिनी, ईरान, इराक, कांगो, लेबनान, लीबिया, माली, म्यांमार, निकारागुआ, उत्तर कोरिया, रूस, सूडान, सोमालिया, सीरिया, वेनेजुएला, यमन और जिम्बाब्वे है। आबादी से गिने या इलाके से मापे, दोनों पैमाने में ही लगभग आधी दुनिया से अमेरिका का धंधा बंद हो गया है। भारत और ब्राजील पर पचास प्रतिशत, तो स्वीज और ताइवान जैसे अन्य को लगभग चालीस फीसदी के घेरे में रखा है तथा ब्रिक्स राष्ट्रों पर सौ अंश की अतिरक्ति आयात करदर लगा दी है। इनके साथ ट्रम्प के लिए व्यवसायिक संबध पहले कम और बाद में तो बंद होने ही हैं।
मुद्रा विनमय के आधार पर देखें तो अमेरिका कुल आयात का चालीस भाग मैक्सिको, कनाडा तथा चीन से होता है। वहीं जर्मनी, जापान, द.कोरिया, वियतनाम, ताईवान, आयात बिल में बीस फीसदी का योगदान करते हैं। साठ भाग तो केवल आठ देशों से है।
दूसरी तरफ अमेरिका का सबसे अधिक निर्यात कनाडा से है जो कि अकेले ही लगभग सत्रह प्रतिशत अमेरिकन सामान का आयात करता है, वहीं पूरे यूरोपियन संघ के सत्ताईस देश मिल कर केवल पंद्रह फीसदी खरीद करते है। अपने सबसे प्रमुख निर्यात उत्पाद तेल के लिए अमेरिका को दो सौ देशों में बाजार बनाना होता है।
हिन्दुस्तान के कुल आयात का सत्ताईस फीसदी भी केवल तेल ही है। इस तरह से हिन्द तेल का एक बड़ा बाजार बना था परन्तु सस्ता रूसी तेल लेकर भारत ने अमेरिका का तेल निकाल दिया। वैसे माना जाता है कि अपने महंगें तेल बाजार को बनाये रखने के लिए चालाक अमेरिका ने तेल उत्पादक अरब देशों को अपने स्वार्थ में ही येन केन प्र्रकरण तरक्की से रोका है।
अमेरिका के कुल आयात में भारतवर्ष का निर्यात बामुश्किल तीन फीसदी है। इसमें अगर उत्पादों की सूची देंखे तो नियमित और आम जनता के उपयोग में आने वाली कम मूल्य के उत्पाद भारतवर्ष से हैं। इनमें से अधिकतर को अमेरिकी जनता को खरीदना होगा। अब तक जहां अमेरिका और भारत में अमेरिका का व्यापार घाटा चार खरब रुपये तक रहा अब तेल का आयात रूकने से बढ़ कर दस खरब तक जा सकता है। ऐसे में वहां पर मंहगाई में वृद्धि होना लाजमी है। अमेरिकन ने दवाऐं, चावल, मसाले, फल, सौन्दर्य प्रसाधन, गहने, कपड़े, चर्म उतपाद, सजावटी हस्त कारीगरी सामान को किसी कीमत पर खरीदना ही है। अब इस तरह से हर देश के महंगें आयात में उनकी जनता में क्रय शक्ति की गिरावट आयेगी और स्थानीय महंगें आधुनिक अनावश्यक उपकरण का क्रय कम हो जाएगा। अमेरिकन उद्योग जगत को मंदी का सामना करना होगा। इस पर अमेरिकी उद्योग को विश्व बाजार में अपने उत्पाद को बेचना होगा। अमेरिका को भारत के व्यवसाय में अन्य राष्ट्रों ने भी पारस्परिक आयात नीति में अमेरिकन उत्पादों पर अपने आयात कर बढ़ा दिये। ऐसे में बाजार पाने के लिए अमेरिका को अपने उत्पादों को सस्ते करने होगें। इससे अमेरिकनों के लाभ में गिरावट आना तय है। इसका प्रभाव थोड़े समय में डॉलर के अंर्तराष्ट्रीय मूल्य पर पड़ेगा और डॉलर का गिरना तय है। इसका भविष्य के परिणाम में तय है कि यहीं से अमेरिका का पतन प्र्रारम्भ है।